बाड़मेर.
जैसलमेर जिले में अभी भी बेटे-बेटी का फर्क मिटने का नाम नहीं ले रहा है। यहां बेटियों का जन्म तो होने लगा है लेकिन उनकी पढ़ाई को लेकर अभी भी सोच सुधरने का नाम नहीं ले रही है। यहां इस साल दसवीं के नतीजों में सामने आया है कि जिले में 4181 बेटे उत्तीर्ण हुए और बेटियां 2291 ही पास हुई है। यानि बेटों के मुकाबले करीब पचास प्रतिशत बेटियों को ही दसवीं तक उत्तीर्ण हुई। बेटियों को दसवीं तक पहुंचने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। ऐसी ही कमोबेश स्थिति सिरोही की है,जहां 5813 बेटों के मुकाबले 3801 बेटियां ही उत्तीर्ण हुई है। बेटियों को दसवीं तक भी नहीं पढ़ाने के इन आंकड़ों के बावजूद सरकारी स्तर पर कोई विशेष योजना इन जिलों के लिए नहीं बनाई गई है। इसके विपरीत नाज करने वाली स्थिति प्रदेश के डूंगरपुर जिले की है जहां पर 9856 बेटों ने दसवीं उत्तीर्ण की है तो बेटों की संख्या 10751 बेटियां दसवीं उत्तीर्ण हुई है। यानि बेटों की संख्या से ज्यादा है। प्रदेश का एकमात्र जिला है जहां बेटियां जन्म ही नहीं पढ़ाई के मुकाबले में भी बेटों से आगे है और अभिभावक बेटियों को स्कूल भेजने से हिचकिचा नहीं रहे है। प्रदेश के बांसवाड़ा जिले में भी स्थिति बेहतर है, यहां 12494 बेटों के मुकाबले 12304 बेटियां उत्तीर्ण हो रही है।
क्यों है यह स्थिति
– बेटियों को पढ़ाने को लेकर अभिभावकों का भेदभाव
– दूरियों की वजह से बेटियों के लिए स्कूलों का अभाव
– ग्राम पंचायत स्तर पर बेटियों के अलग से दसवीं-बारहवीं के स्कूल नहीं
– दसवीं-बारहवीं के नतीजों की समीक्षा कर कोई योजना नहीं बनाना
परिस्थितियां कुछ नहीं होती
बाड़मेर की बेटियों से सीखिए हौंसला
केस-1
पढऩे के लिए परिस्थितियों को दोष देने वाले अभिभावकों के लिए बाड़मेर जिले के दो उदाहरण है। पहली यहां हापों की ढाणी की बेटी लीला है, जिसके 2013 में दोनों हाथ कट गए लेकिन उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी। पांवों से लिखने लगी और उसने 59 से अधिक प्रतिशत हासिल किए। लीला के पिता सामान्य किसान है और बेटी के दोनों हाथ कटने के बाद उनके सामने अंधियारा छा गया था लेकिन बेटी ने शिक्षा के उजियारे से अपनी जिंदगी संवारना तया किया।
केस-2
बाड़मेर के डंण्डाली गांव की धापू जन्मांध है।उसके परिवार में मां-बााप,चाचा 08 सदस्य भी जन्मांध है। धापू ने पढ़ाई को अपना हथियार बनाया और वह गांव में स्कूल गई, फिर बाड़मेर में मूक-बघिर-अंध विद्यालय में पढ़ी। दसवीं-बारहवीं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और अब एसटीसी कर चुकी है। यह बालिका मीलों पैदल चलकर स्कूल गई तो आज उसको आस है कि उसकी सरकारी नौकरी भी लगेगी।
केस-3
धोरीमन्ना के सामान्य सब्जीविक्रेता भीखाराम की बेटी पेम्पों ने हाल ही में दक्षिण कोरिया में वजीफा हासिल किया है, उसने दसवीं-बारहवीं गांव में की और उसके बाद स्नातक में कुरीयन भाषा सीखी और खुद के बूते ऐसे आगे बढ़ी कि अब उसको कोरिया ने वजीफा देकर बुलाया है। एक छोटे कस्बे की बेटी की बड़ी सोच सामने आई है।
मॉनीटरिंग कहां हो रही है
लिंगानुपात को लेकर स्थितियां लगातार सुधर रही है। बेटी-बेटी का भेदभाव इस स्तर पर अब खत्म होने लगा है लेकिन बेटियों के पालन-पोषण व शिक्षा को लेकर अभी भी स्थितियां ठीक नहीं है। विशेषकर शिक्षा को लेकर बेटियों को पांचवी-आठवीं के बाद पढ़ाई छुड़वाई जा रही है। यहां मॉनीटरिंग की जरूरत है। आठवीं के बाद पलायन होने वाली बालिकाओं की सूची बने और अभिभावकों के पास पहुंचकर इनको प्रोत्साहित कर दाखिला करवाया जाए। राज्य सरकार बालिका विद्यालय का अलग सेटअप बनाएं ताकि बेटियां पढऩे को प्रेरित हों। मॉनीटरिंग की कहीं न कहीं कमी है।- महेश पनपालिया, सामाजिक कार्यकर्ता
Source: Barmer News