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बाड़मेर। पेड़ों एवं वन्यजीवों की रक्षा लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले बिश्नोई समाज के लोग पर्यावरण संरक्षण एवं आस्था के चलते होली दहन की लौ तक से दूर रहते हैं। विश्नोई समाज में इसके पीछे मान्यता है कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया गया था।

विष्णु भगवान 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलियुग में भगवान जाम्भोजी के रूप में अवतरित हुए। विश्नोई समाज स्वयं को प्रहलाद पंथी मानते हैं। सदियों से चली आ रही यइ परंपरा पर्यावरण संरक्षण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विश्नोई समाज में होलिका दहन से पूर्व जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है। सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने एवं होलिका के दहन के बाद विश्नोई समाज खुशी मनाता है, लेकिन किसी पर कीचड़, गोबर, रंग नहीं डालते हैं।

बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे। विश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णुजी के अवतार थे। कलियुग में संवत् 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना की और पवित्र पाहल पिलाकर बिश्नोई पंथ बनाया था। जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयाई ही वर्तमान में बिश्नोई समाज के लोग हैं, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं। जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं।

होली दहन से पूर्व संध्या पर होलिका जब प्रहलाद को लेकर आग में बैठती है तभी से प्रहलाद पंथी शोक मनाते हैं। बिश्नोई समाज में अब भी यह परंपरा कायम है। शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खीचड़ा (सादा भोजन) बनया जाता है। सुबह खुशियां मनाई जाती हैं, तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं।

ग्रंथों में उल्लेख है कि प्रहलाद की वापसी पर हवन करके कलश की स्थापना की गयी थी। माना जाता है कि होली पर स्थापित प्रहलाद पंथ को आगे चलकर हरिशचंद्र ने त्रेता युग में स्थापित किया। बाद में द्वापर युग में युधिष्ठिर ने इसी पंथ को स्थापित किया। इसके बाद कलियुग में विष्णु अवतार गुरु जांभोजी ने इसी पंथ को पुन: स्थापित किया।

 

Source: Barmer News

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