सुरेश व्यास/जोधपुर. ‘आग लगने पर ही कुआं खोदने’ की कहावत सरकारी मशीनरी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। खासकर जब कोई आंदोलन उग्र रूप लेने लगे तो शासन-प्रशासन की आंख खुलती हैं और अफसर हालात काबू में करने के लिए हाथ-पैर मारते नजर आते हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले के किसान आंदोलन के मामले में भी ऐसा ही सामने आया है।
किसान पिछले 22 दिन से बिजली बिलों से जुड़ी समस्याओं के समाधान की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन जब किसान जोधपुर डिस्कॉम मुख्यालय पर महापड़ाव डालने गांवों से निकले तो प्रशासन की नींद खुली। हालांकि कोरोनाकाल में चल रही सख्ती और जगह-जगह पुलिस बैरिकेड्स लगा दिए जाने से किसान जोधपुर जिला मुख्यालय नहीं पहुंच सके और जो पहुंचे उन्हें भी रात्रिकालीन कफ्र्यू का हवाला देते हुए हटा दिया गया। बाद में जिला कलक्टर ने एडीएम को मौके पर भेजा और किसानों को बुलाकर वार्ता की, लेकिन रात दो बजे वार्ता विफल होने के बाद गेंद सरकार के पाले में डाल दी गई।
किसान पिछले कई दिनों से जिले की 11 तहसीलों पर धरना देकर बैठे हैं। करीब 50 हजार किसान आंदोलन से सीधे जुड़े हैं। हर तहसील मुख्यालय पर चार से पांच हजार किसान जुटते रहे, लेकिन विडम्बना है कि इस ओर शासन-प्रशासन का ध्यान ही नहीं गया। किसान चाहते हैं कि इन्हें बिजली बिल में मिलने वाला 833 रुपए का अनुदान वापस मिलना शुरू हो। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के वक्त शुरू हुआ यह अनुदान पिछले साल सितम्बर से बंद है। इसी तरह किसानों को कुल बिल की राशि पर लगने वाले ब्याज में छूट भी नहीं मिल रही।
किसान चाहते हैं कि कोरोनाकाल के दौरान बिजली के बिल भी माफ किए जाएं। ऐसी करीब 21 मांगों को लेकर किसान आंदोलन पर हैं। प्रशासन का कहना है कि अनुदान और बिल माफ करने जैसी मांगें नीतिगत फैसलों से जुड़ी हैं। सरकार ही इसमें कोई फैसला कर सकती है। डिस्कॉम के हाथ की यह बात नहीं है। सवाल है कि किसानों ने अनुदान बंद होने के तुरंत बाद आंदोलन शुरू कर दिया था। इसके बाद लॉकडाउन में आंदोलन स्थगित रहा। अब लॉकडाउन खत्म हुआ तो वापस किसान एकजुट हो रहे हैं तो क्या सरकार तक ये मांगें अब तक नहीं पहुंचाई गई और पहुंचाई गई तो सरकार ने फैसला अभी तक क्यों नहीं किया? किसानों का कहना है कि उन्होंने एक हजार से ज्यादा ज्ञापन डिस्कॉम के ग्रामीण अधिकारियों से लेकर डिस्कॉम प्रबंध निदेशक और जिला कलक्टर से मुख्यमंत्री तक को भेजे हैं, लेकिन सुनवाई नहीं हो रही।
किसान को फसल उगाने से लेकर बेचने तक संघर्ष करना पड़ता है। पैदावार अच्छी होती है तो खरीदार नहीं मिलते और औने-पौने दामों में फसल बेचनी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि इन सभी बातों से सरकार या जनप्रतिनिधि अनभिज्ञ हों, लेकिन पहल कोई नहीं करना चाहता। किसानों के मु²े पर सरकार को संवेदनशीलता दिखाते हुए समय पर कोई सर्वमान्य फैसला करना चाहिए। कम से कम समय पर सकारात्मक रवैये के साथ बात ही कर ली जाए तो आंदोलन को फैलने से रोका जा सकता है।
Source: Jodhpur