मां…की भूख पर मौन क्यों?
टिप्पणी
प्रतिदिन कोई प्यार से रोटी खिलाएं तो वह मां होती है। आपके बच्चों के स्कूल जाने पर वह यदि उनको रोज अच्छी रोटी खिलाकर उनको स्कूल से जोड़े हुए है तो उसका यह कृत्य आपके स्नेह के बराबर ही है। पचास से सौ बच्चों को रोज खाना बनाकर देना कोई छोटी बात नहीं है और वो भी एक तय समय पर। भले ही ये औरतें मानदेय की मामूली रकम के लिए मजबूर होकर यह कार्य कर रही है लेकिन इस मजबूरी में भी तो हर बच्चे से इनका स्नेह छिपा है तभी तो इतना पसीना बहाकर पिछले कितने ही सालों से रोटी-सब्जी बनाने का कार्य कर रही है। कोरोना के संकट ने सबको घेरा है,लेकिन इन महिलाओं को कोरोना के साथ दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। बच्चों की रोटी बंद होते ही इनका मानदेय रोक दिया गया है। न तो इनको यह कहा जा रहा है कि मानदेय क्यों नहीं दिया जा रहा है? न ही यह बताया गया है कि अब रोटी नहीं बनाने पर उनको मानदेय मिलेगा या नहीं? कोरोना के इस संकट में जब आर्थिक तंगी में कोई मददगार नहीं है इन महिलाओं का मासिक 1320 रुपया रोककर बैठी राज्य सरकार का कहना है कि 60 प्रतिशत केन्द्र सरकार का हिस्सा बनता है, केन्द्र नहीं दे रहा है। अब इन गरीब,परित्यक्तता, एकल, बुजर्ग और जरूरतमंद महिलाओं को इससे क्या मतलब कि केन्द्र देता है या राज्य? ये तो यह जानती है कि जो भी देता है उसी से उनके घर का चूल्हा जलता है। मामूली मानदेय पर काम कर रही इन महिलाओं की पैरवी का प्रथम जिला शिक्षक संगठनों का है। शिक्षकों के साथ ही कार्य करने वाली इन महिलाओं की आवाज को वे पुरजोर तरीके से सरकार तक ले जाए। मजदूर युनियन और महिला संगठन भी पैरवी करे कि आखिर प्रदेश की 1 लाख से अधिक महिलाओं को इन हालात में दूसरा रोजगार कहां नसीब होगा? विद्यालयों में रोटी नहीं पक रही है तो अन्य कोई कार्य देकर इनको विद्यालय से जोड़ा जाए और इनके घर के चूल्हे जले इसके लिए मदद की जाए। राज्य सरकार में नुमाइंदे मंत्री-विधायक इस पीड़ा को आगे बढ़ाएं। बड़ी मदद तो तब होगी जब खुद अभिभावक इस मुहिम से जुड़कर आवाज उठाएंगे कि इन महिलाओं के मानदेय का प्रबंध हों,ये महिलाएं कितने सालों से बच्चों के लिए रोटी का प्रबंध कर रही है तो अब इनके घर आए संकट में बच्चा-बच्चा बोल सकता है। ये महिलाएं ही नहीं सरकार के सामने ऐसे कई और विभाग है जहां हालात ऐसे ही है। सामाजिक अधिकारिता एवं न्याय विभाग के छात्रावास के रसोइयों को भी मानदेय नहीं देकर तरसाया जा रहा है। आंगनबाड़ी केन्द्रों में गर्म पोषाहार देने का कार्य भी बंद पड़ा है। मामूली मानदेय पर काम करने वाले लोगों के लिए यह कम पैसा उनकी जिंदगी चलाने जैसा है। इस कम पैसे को कमाने में ही तो वे अपना पसीना और जिंदगी लगाए बैठे है तो सरकार अब कोरोना का इतना समय बीतने के बाद यह तो तय करे कि आखिर इन लोगों का होगा क्या? खुद सरकार जब इस बात की पैरवी करती रही है कि कोरोना में किसी का रोजगार नहीं छीना जाएगा तो फिर ये लोग किस श्रेणी में आते है? रोजगार पर रखकर यदि मानदेय नहीं दिया जाए तो यह कैसा रोजगार हुआ? इस छिपी बेरोजगारी का सरकार आंकड़ा भी निकाले कि कितने लोगों को इस तरह ठाले बैठाया हुआ है। यदि यह आंकड़ा प्रदेश में लाखों के पार जाता है तो सरकार के लिए विचारणीय है कि ये लोग कोरोना के काल में आर्थिक संकट में किस हालात में जी रहे है? छिपी बेरोजगारी में छिपे इनके आंसूओं को पौंछने का दायित्व भी सरकार का ही है। संविदा और मानदेय पर काम करने वालों का भला सरकार कोरोना में करें तो बेहतर है लेकिन इनको इस तरह मानदेय से वंचित रखना ठीक नहीं है।
Source: Barmer News