बाड़मेर. किसानों का महापर्व अक्षय तृतीया का त्योहार शुक्रवार को मनाया जाएगा। त्योहार को लेकर गांव-गांव उत्साह नजर आता है। क्योंकि इस दिन शगुन विचार होता है कि जमाना आएगा या नहीं। गांवों में सभाएं, रियाण होती है जिसमें परम्परागत बाजरा से बने व्यंजन खींच, गुळवाणी, देसी सब्जियों बना कर एक-दूसरे के घर भेजी जाती है। इस बार कोरोना संक्रमण का दौर चलने से उत्सव को लेकर उत्साह कम है।
रियाण नहीं होने से लोग घरों में ही सात धान रख कर शगुन विचार करेंगे। वहीं आमजन से भी घरों में रहकर त्योहार मनाने व सोशल डिस्टेंसिंग की पालना की अपील पत्रिका की ओर से की जा रही है। आखातीज वैशाख सुदी तीज को मनाई जाती है। इसे अकाल -सुकाल को लेकर सबसे महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है।
हाळी अमावस्या से आखा तीज तक चारों दिन आंगन में सात अनाजों बाजरा, गेहूं, मूंग, मोठ, तिल, ग्वार और मतीरा के बीजों के अलग -अलग ढेरियां बनाई जाती है। गुड़ की डली और पानी से भरा लोटा कच्चे सूत /रोली से लपेट कर रखे जाते है, यदि अनाज पर पहली चोंच चिडि़या भरे तो सुकाल माना जाता है और पहली चोंच कौआ भरे तो अकाल।
इस दिन कौए का बोलना भी अशुभ माना जाता है। पर्यावरण प्रेमी भेराराम भाखर के अनुसार किसान सुबह अंधेरे में खेत में जाकर शगुन देखते हैं। खेत में पशु-पक्षियों, शगुनचिड़ी, हिरण, धोलाढींग आदि की बोली से शगुन विचारे जाते हैं। छोटे बच्चे किसानों की परम्परागत वेशभूषा में अलसुबह लकड़ी के हळ जोतते हैं। खेतों में सात तरह के अनाज बोए जाते है।
बालक झुण्ड में टंकोरे बजाकर खुशी मनाते हैं। यह किसानों को खरीफ फसल की तैयारी करने का जागृति संदेश होता है। आखातीज के दिन किसान कच्ची मिट्टी के चार बर्तन बना कर उनमें पानी भरते हैं। चारों बर्तनों को चौमासे के चारों महीनों ज्येष्ठ, आसाढ, सावण, भाद्रपद नाम दिया जाता है, जो बर्तन सबसे पहले फूटता है, उसके बारे में माना जाता है कि उस महीने में अच्छी बरसात होगी।
इसी प्रकार आखातीज के दिन सफेद और काली ऊन की दो पूणियां एक ही बड़ी पानी से भरी परात या तगारी में रखी जाती हैं। सफेद को सुकाल और काली को अकाल का प्रतीक माना जाता है, सफेद पहले डूब जाती है तो माना जाता है कि अकाल होगा और काली पहले डूब जाती हैं तो खुशी का अनुभव होता है।
Source: Barmer News