अनवर कोई यूं ही नहीं बनता…. जीना पड़ता है अपने भीतर पूरा रेगिस्तान
– पद्मश्री अनवरखां बहिया का जीवन लोकगायकी को समर्पित
– खम्मा-घणी, बाप-दादों ने सिखाया वो ही गाता हूं…यजमानों पर वारी-बलिहारी
फोटो समेत
बाड़मेर पत्रिका.
पद्मश्री पुरस्कार से नवाजे गए अनवरखां बहिया कहते है संगीत तो खम्माघणी मांगणिहार मां के पेट से सीख लेता है। हमारे बाप-दादों ने जो सिखाया वो ही गाता हाूं और यजमानों और गांववालों की वारी-बलिहारी जिन्होंने हमारी गायकी को पीढिय़ों से जिंदा रखा है। आज भी लाखों रुपए न्यौछावर कर दंू, मेरे यजमानों के यहां मांगलिक अवसर हों तो..। शुक्रगुजार है हम लोग कोमल दा(कोमल कोठारी) और पदमश्री मगराज जैन के जिन्होंने पचास साल पहले हम मांगणिहारों की अंगुली पकड़कर देश-विदेश के मंच पर पहुंचाया।
अनवरखां बहिया को हाल ही में देश के राष्ट्रपति ने पदमश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। जैसलमेर के बहिया गांव के अनवर के पदमश्री अनवरखां बनने की कहानी में एक पूरा तप है जो दर्शाता है कि सारी जिंदगी कोई अपने भीतर पूरा रेगिस्तान और माटी की महक को लेकर जीता है,तब अनवर बनता है। 1960 में बहिया गांव में रमजानखां के यहां जन्मे अनवर कहते है मां के पेट से सीखा था गाना और पांच साल की उम्र में पिता के साथ भाटी यजमानों के घरों में गाता था तो दाद..मिलती थी। रमजान छोकरियो ठावको गावै…ये शब्द आज भी कानों में गूंजते है..। कई बार लौट जाता हूं उन्हीं मिट्टी के घरों..आंगन..साज और पिता के साथ अंगुली थामे गाता हुआ..उसका कोई मोल नहीं है आज भी। बारह साल का हुआ तो बाड़मेर-जैसलमेर दोनों जिलों में बुलाने लगे..कारण एक ही था…की गावै है अनवर..वाह भाई वाह.., ये दाद अनमोल है खम्मा घणी।
कोमलदा..मगराज सा..ताउम्र शुक्रिया
कोई हाथ नहीं थामे तो मंजिल नहीं मिलती खम्मा..कोमल दा(कोमल कोठारी) रूपायन संस्थान और नेहरू युवा केन्द्र के मगराज जैन सा..दो शख्सियत है जिन्होंने पूरी मांगणिहार बिरादरी शुक्रगुजार है। हमारे बाप-दादा के लोकगायन को गांव से निकालकर देश-विदेश तक लेकर गए और पंद्रह साल की उम्र में मैं भी बाहर आया। 20 साल की उम्र में तो पूरा भारत घूम लिया।
1982-83 से अब तक 100 देश घूम आए
1982-83 में पहला विदेश दौरान लंदन,रूस का रहा और फिर तो एक सिलसिला हो गया। अब तक 100 से ज्यादा देश मैं घूम आया और मेरे साथ मैने हमेशा अंगुली पकड़कर छोटे और नए कलाकारों को साथ लिया,ताकि वे इस बाप-दादा की गायकी से जुड़े रहे। मेहरबानी है कि हमारी पीढ़ी आज भी गाती है।
हमारे अपने राग-रागनियां
मैने कहा न संगीत हमने मां के पेट से सीखा है, हमारे अपने साज है। कमायचा, खड़ताल, ढोलक और अन्य और हमारे अपनी राग रागनियां है जिन्हें हम तोड़ी, धानी, आशा, खमायची, कल्याण, सुअब, सोरठ, भलार और अन्य भी है। बाप-दादा ने दूहे खुद लिखे, संगीत खुद लिखा..उसे ही हम गाते है। मैं तो पुराने भजन, गीत और दूहों को गाता हूं जो बाप-दादा ने सिखाया है।
पुरस्कार मिले पर असली पुरस्कार-मेरे यजमान
राजस्थान संगीत अकादमी, केन्द्रीय संगीत अकादमी, मारवाड़ रत्न और अन्य कई पुरस्कार मिले लेकिन मेरा असली पुरस्कार मेरी यजमानी प्रथा और यजमान है। पूरी परंपरा को जिंदा रखने वाले ये गांव के यजमान है जो कद्र, मान और सम्मान देते है। वरना, हमारी यह कला जिंदा नहीं रहती। सच कहूं, लाखों रुपए का कार्यक्रम हों लेकिन मेरे गांव के यजमान के घर हों तो न्यौछावर कर दंू, मैं तो इन पर वारी और बलिहारी हूं।
अनवर जीते है पूरा रेगिस्तान
अनवरखां के पहनावे में साफा, जैसलमेरी-बाड़मेरी पट्टू, लंबी मूंछ, तेवटा, जूती और पांवों से नीचे तक कोट रहता है। वे पूरे रेगिस्तान को अपने भीतर जीते है। गायकी में भी देवयाण और देवी स्तुतियों के साथ कबीर के भजन उनके पसंद में है।
पढ़े-पढ़ाएं और नहीं छोड़े परंपरा
मेरी अपनी पीढ़ी से आग्रह है कि वे पढऩा शुरू करें। पढ़ाई के साथ संगीत को जारी रखे। इस परंपरा को नहीं छोड़े। टीवी, मीडिया और हर जगह से अब प्रोत्साहन मिल रहा है। यह गायकी है जो मांगणिहार को इज्जत दिलवा रही है।
Source: Barmer News