जोधपुर। न्याय की दहलीज पर देर है, अंधेर नहीं। दो सौ रुपए की घूस लेने का आरोप झेल रहे बिजलीघर के सहायक अभियंता प्रकाश मणिहार के लिए पिछले 40 साल की कानूनी लड़ाई का सुखद अंत शायद यही साबित करता है। राजस्थान हाईकोर्ट ने अधीनस्थ कोर्ट से 1991 में एक साल की सजा होने के बाद करीब 32 साल से लंबित अपील स्वीकार करते हुए मणिहार को बरी कर दिया है।
चित्तौडग़ढ़ जिले के गंगरार कस्बे में तत्कालीन राजस्थान राज्य विद्युत मंडल के सहायक अभियंता मणिहार को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने 5 मार्च, 1982 को दो सौ रुपए की घूस के आरोप में रंगे हाथों गिरफ्तार करने का दावा किया था। लंबी ट्रायल के बाद विशिष्ठ न्यायालय (भ्रष्टाचार निवारण मामलात), भीलवाड़ा ने 2 दिसंबर, 1991 को उसे दो धाराओं में एक-एक साल की सजा सुनाई। इसके खिलाफ मणिहार ने उसी साल हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। करीब 32 साल से अपील लंबित थी।
न्यायाधीश डॉ. पुष्पेंद्र सिंह भाटी की एकल पीठ में याचिकाकर्ता मणिहार की ओर से अधिवक्ता एमएस राजपुरोहित ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों को साबित करने में पहले रिश्वत की मांग और फिर स्थापित वसूली होनी आवश्यक है। इस मामले में अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग को साबित ही नहीं कर पाया। इसके बावजूद अधीनस्थ अदालत ने विधिक तथ्यों की अनदेखी करते हुए याची को सजा सुना दी।
एकल पीठ ने पाया कि अधीनस्थ अदालत के रिकॉर्ड से दो सौ रुपए की राशि की बरामदगी साबित होती है, लेकिन रिश्वत की मांग का पहलू अस्पष्ट और संदिग्ध है। प्रकरण में न तो कोई प्रतिलेख है, न ही कोई टेप रिकॉर्डिंग, टेलीफोनिक वार्तालाप, फोन रिकॉर्ड या ऐसा कोई गवाह मौजूद है, जो याची को सभी उचित संदेहों से परे आरोपी सिद्ध करे। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोहराते हुए कहा कि आरोपी को दोषी ठहराने से पहले मांग और वसूली दोनों तत्वों को स्पष्ट रूप से साबित किया जाना चाहिए। इस मामले में मांग साबित नहीं होने से यह आरोपी को बरी करने का उपयुक्त मामला है। एकल पीठ ने अधीनस्थ न्यायालय का आदेश अपास्त करते हुए याचिकाकर्ता को बरी कर दिया।
Source: Jodhpur