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जोधपुर।

मानव जाति के लिए ज्ञात प्राचीन जड़ी-बुटियों में से एक कैमोमाइल चाय की खेती अब थार के रेगिस्तान में की जाएगी। कृषि विश्वविद्यालय ने दक्षिणी पूर्वी यूरोप के कैमोमाइल चाय के पौधे पर करीब दो साल से चल रहे शोध में सफलता हासिल की है। जिसमें कैमोमाइल चाय का पं राजस्थान की जलवायु, तापमान में बुवाई करने का उपयुक्त समय अक्टूबर का अंतिम सप्ताह पाया गया, वहीं उत्पादन फरवरी-मार्च में होता है। इसके अलावा पौधों की ज्योमेट्री पर रिसर्च कर पौधे को 40 गुणा 10 की दूरी पर 40 सेमी व एक पौधे से दूसरा पौधा 10 सेमी की दूरी पर बुवाई करने पर अच्छा परिणाम आया। कैमोमाइल चाय के लिए जर्मन व रोमन पौधे उपयुक्त होता है। विश्वविद्यालय में जर्मन पौधे पर रिसर्च चल रहा है।

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तेल के रंग से गुणवत्ता होती है तय

– कैमोइाल चाय में पानी गेहूं से कम और सरसों से अधिक चाहिए।

– इसकी पत्तियां लम्बी, पतली व संकरी होती है।

– इसके सफेद-पीले रंग के ताज़ा फूलों से ब्लू ऑयल(वोलेटाइल ऑयल) निकलता है , तेल के रंग से इसकी गुणवत्ता निर्धारित होती है- फूलों को सूखाकर चाय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

कई बीमारियों में कारगर

– नींद की बीमारी इनसोम्निया और एंजायटी को दूर करती है।- इसमें एपीजेनिन एंटीऑक्सीडेंट होता है, जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।

– पाचन तंत्र दुरुस्त रखने के साथ ब्लड शुगर को नियंत्रित रखती है।

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शोध पत्र को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिली मास रेटिंग

हाल ही में स्विट्जरलैण्ड से प्रकाशित होने वाली इंटरनेशनल एग्रोनॉमी जर्नल में कैमोमाइल चाय पर रिसर्च कर रहे जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ मोतीलाल मेहरिया का शोध पत्र छपा। जिसे कम समय में हाई रेटिंग मिली है।

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कैमाेमाइल चाय के पौधे पर दो साल से चल रहे रिसर्च अच्छी सफलता मिली है। वर्तमान में इस पर काम चल रहा है।

प्रो बीआर चौधरी, कुलपति

कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर

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क्रॉपिंग टाइम व पौधे की ज्योमेट्री के बाद अब पौधे की ग्रोथ पर काम चल रहा है। इसमें सफलता मिलने पर इसके फूल ज्यादा आएंगे।

डॉ मोतीलाल मेहरिया, वैज्ञानिक व क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान

कृषि विवि जोधपुर

Source: Jodhpur

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