बाड़मेर पत्रिका.
मैं थार एक्सप्रेस…., मैं आराम से सफर पर थी। खुशी-खुशी। दोनों देशों से हर हफ्ते आना-जाना और रिश्तों को मिलाना। पुण्य का इससे बड़ा कार्य क्या होगा? बस,यही मर्म मुझे बहुुत तसल्ली देता। 1965 से 18 फरवरी 2006 तक बंद रहने का 41 साल का वनवास मैं भूल चुकी थी। मुझे लगा कि जो बीत गया वो कल था। अब ऐसी कोई परिस्थिति नहीं आएगी। मैं अनवरत चलूंगी लेकिन मुझे क्या मालूम कि यह मेरा सपना था जो टूटने वाला था। अचानक दोनों देशों की स्थितियां बदली। तनाव उत्पन्न होने लगा। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटा दी गई। पुलवामा हमला और एयर स्ट्राइक की घटनाएं हुई। दोनों देशों ने एक दूूसरे पर भृकुटियां तान ली। फिर वही हालात…संबंध तोडऩे की स्थितियां। 1947, 1965 और 1971 में ऐसे हालात देख चुके मेरे से जुड़े तमाम लोगों की अब धड़कनें बढ़ गई थी। सबको एक ही फिक्र थी कि इसकी गाज मेरे सफर पर गिरेगी। 9 अगस्त को जोधपुर से मैं रवाना हुई और 10 अगस्त को वापस लौटी। पाकिस्तान ने कह दिया कि यह आखिरी फेरा होगा..। आखिरी…मेरे 14 साल के सफर का विराम। लाखों लोग जो इधर-उधर बसे थे..जिनका जुड़ाव मेरे जरिए भारत-पाक से था उनके चेहरों की सारी खुशियां स्याह हो गई। जिनकी भृकुटियां तनी थी उनकी आंखों में देख लेने का रंग था लेकिन मेरे से जुड़े लोगों की आंखों में आंसू थे…इस बात के कि फिर ऐसा क्यों? लाजमी था जो परिस्थितियां थी, मुझे बंद करना पड़ा। मैने भी कबूूल किया और उन लोगों ने भी जो मेरे से जुड़े थे। मुनाबाव के अंतरर्राष्ट्रीय रेलवे स्टेशन पर ताले लगा दिए गए। पाकिस्तान के जीरो लाइन रेलवे स्टेशन को खाली कर दिया गया। पाकिस्तान ने अपनी ओर से द रवाजे बंद कर दिए और भारत ने अपनी ओर के दरवाजे पर कुण्डी लगा दी। उस दिन बंद हुए इन दरवाजों को लग रहा था कि पता नहीं अब फिर कब कोई जसवंत आएगा और खोलेगा? क्या पता किसको दर्द का यह रिश्ता समझ में आएगा? कौन जानेगा कि इन दरवाजों से आ जाकर सफर करने वाले लोगों के परिवार है जो आज फिर बंट रहे है। इन लोगों के अपने है जो इनसे बिछुड़ रहे है। यह दरवाजे बंद हो गए। आज भी बंद है…। दोनों तरफ के रेलवे स्टेशन वीराने और सन्नाटे में ऐसे खड़े है जैसे निष्प्राण हों। कोई चहल-पहल है न आना-जाना। बॉर्डर के नजदीक के गांव अकली, गडरारोड़, मुनाबाव, भाचभर,बाड़मेर के लोग जो शुक्रवार को मेरे गुजरने पर देखते थे कि आज पाकिस्तान वाली रेल आई है….उनकी यह एक क्षण की मेरी पहचान आज केवल याद रह गई है। बंद मतलब बंद…, कोई आवाज अब वापिस नहीं उठा रहा है। लाखों लोगों को यह दर्द साल रहा है। अंदर से खाए जा रहा है कि किसी के मन में यह टीस नहीं उठती कि 2006 में यदि कोई मुुझे 41 साल बाद शुरू करवा सकता है तो 2009 से अब तक यानि करीब 14 साल का मेरा वनवास अब खत्म करवाएगा कोई? रिश्ते ङ्क्षजदा है। लोग ङ्क्षजदा है। दर्द जिंदा है। सबकुछ ङ्क्षजदा है लेकिन लगता हैै मेरे को फिर से शुरू करवाने की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाला कोई नहीं?(क्रमश:)
Source: Barmer News