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जोधपुर. मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित चामुंडा मंदिर की मूर्ति को जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 561 साल पहले विक्रम संवत 1517 में मंडोर से लाकर स्थापित किया था। चामुंडा मूलत: परिहारों की कुलदेवी है लेकिन राव जोधा ने चामुंडा को अपनी इष्टदेवी के रूप स्वीकार किया था। जोधपुर शहरवासियों में चामुंडा माता के प्रति अटूट आस्था यह भी है कि वर्ष 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जोधपुर पर गिरे बम को मां चामुंडा ने अपने अंचल का कवच पहना दिया था।

जब जोधपुर में बिजली और बारूद का कहर बरपा
किले में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास बारूद के ढेर पर बिजली गिरने के कारण चामुंडा मंदिर कण-कण होकर उड़ गया लेकिन मूर्ति अडिग रही। तबाही इतनी भीषण थी इसमें 400 लोग मारे गए थे। इतिहास के पन्नों में दर्ज घटनाक्रम के अनुसार मेहरानगढ़ दुर्ग में गोपाल पोल के पास स्थित बारूद खाने पर बिजली गिरी थी। एक के बाद एक धमाका बारूदखाने में रखे बारूद को उड़ा रहा था। पहाड़ के गर्भ में काट कर बनाए गए बारूदखाने में हुए विस्फोटों ने पहाड़ के विशाल पत्थर पत्तों की तरह हवा में उड़ाना शुरू कर दिया। पत्थरों की बरसात ने दुर्ग से करीब पांच छह मील दूर चौपासनी मंदिर तक मार करनी शुरू की व सैकड़ों मकान पत्थरों के नीचे दब कर टूट गए। उस समय करीब 80 हजार मण ( चालीस किलो का एक मण होता है) सुलगते बारूद के जखीरे का कहर शायद राव जोधा के बसाए जोधपुर शहर व दुर्ग को नेस्तनाबूद कर ही दम लेता , मगर धार्मिक आस्थाओं वाले इस शहर को ऊपर वाला भी बर्बाद होते नहीं देख सका और बिजली गिरने के कुछ ही समय बाद बरसात शुरू हो गई । मूसलाधार बरसात ने धमाकों के साथ जल रहे बारूद को गीला कर दिया जिसके कारण दुर्ग ही नहीं पूरा शहर नरक बनने से बच गया । तब तक दुर्ग के मुख्य द्वार फतेह पोल, गोपाल पोल सहित चामुंडा मंदिर में सिर्फ मूर्तियां ही सुरक्षित रही। इसे मां चामुंडा की कृपा ही माना जाए कि उस समय बरसात शुरू हुई व जोधपुर नगर बच गया , वरना दुर्ग में जितना बारूद भरा था उतना बारूद तो जोधपुर के साथ – साथ इसके – आस पास के सौ गांवों को भी नेस्तनाबूद कर सकता था । मारवाड़ के इतिहास में इस घटना के बाद महाराजा तख्तसिंह ने हिम्मत नहीं हारी व मंदिर का जीर्णोद्धार व मंडप का निर्माण करवाया था।

जब मां चामुण्डा मंदिर के दीवार बना दी गई

जोधपुर व मारवाड़वासियों में जब जब भी शहर पर विपत्तियां आई तब तब मां चामुण्डा ने अपने तेज, प्रकाश शक्ति के माध्यम से सरंक्षण किया। महाराजा जसवंतसिंह के निधन के बाद औरंगजेब के सूबेदार ने चामुंडा मंदिर के मुख्य गर्भगृह के बाहर दीवार चुनावा दी थी। तब अमरसिंह के पुत्र इंदरसिंह मां चामुण्डा सहित अन्य दैवीय मूर्तियां लेकर नागौर चले गए थे। करीब 28 साल बाद महाराजा अजीतसिंह ने जब पुन: मेहरानगढ़ पर फतह हासिल की तो मां चामुण्डा की मूर्तियां पुन: नागौर से लाकर विधिविधान से स्थापित की गई।

Source: Jodhpur

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