बाड़मेर . देश में 1966-67 में शुरू हुई हरितक्रांति बाड़मेर में 2010 तक आ पहुंची। जहां चारों ओर पसरा रेगिस्तान, ऊंचे-ऊंचे टीले, हर साल अकाल तथा पानी की एक बूंद के लिए संघर्ष करना पड़ता था, वहां अब जीरा, ईसबगोल जैसी फसलें तथा अंजीर, खजूर, अनार के बगीचे लहलहा रहे हैंं। 2010 से पहले लोगों के लिए एक घड़ा पानी के लिए मीलों का सफर करना पड़ता था। वहीं अब धोरों के बीच फव्वारों की छक-छक सुनाई दे रही है।
5 लाख किसान हैं जिले में
23 लाख हैक्टेयर जमीन है खेती योग्य
17 लाख हैक्टेयर में हो रही बुवाई
2.70 लाख हैक्टेयर जमीन है सिंचित
1000 हैक्टेयर में हो रही जैविक खेती
बुवाई लाख हैक्टेयर- फसल – उत्पादन मीट्रिक टन
8.34 – बाजरा – 117379 लाख
1.39 – जीरा – 43115
1.33 ईसबगोल -55079
0.22 – अरण्डी -28154
0.5 – अनार- 250
0.00112 खजूर
11.86 – सरसों -12996
0.16 – गेहूं- 27939
2010 से जिले की खेती में बड़ा परिवर्तन
2011 में अनार की शुरुआत
200 किसानों का हर वर्ष होता है प्रशिक्षण
1800 किसान ले चुके हैं प्रशिक्षण
परम्परागत फसलों के बाद सबसे अधिक जीरे की बुवाई
जिले में परम्परागत फसलों के बाद किसानों को सबसे अधिक जीरा रास आ रहा है। यहां सबसे अधिक 8.34 लाख हैक्टेयर में बाजरे की बुवाई हो रही है। 1,17,339 मीट्रिक टन बाजरे का उत्पादन हो रहा है। इसके बाद 1.39 लाख हैक्टेयर में 43,115 मीट्रिक टन जीरा तथा 1.33 लाख हैक्टेयर में 55,079 मीट्रिक टन ईसब की पैदावार हो रही है।
10 वर्ष में 540 प्रतिशत बढ़ा जीरा
जिले के कई गांवों में करीब 50 साल से जीरे का उत्पादन हो रहा है, लेकिन वर्ष 2007-08 में इसमें अचानक बूम आया जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। दस वर्षों के दौरान जीरे का उत्पादन करीब 540 प्रतिशत तक बढ़ गया।
जीरे की वर्षवार पैदावार
वर्ष – पैदावार मीट्रिक टन
2006-07 – 8000
2007-08 – 27118
2008-09 – 28712
2009-10 – 34211
2010-11 – 35057
2011-12 – 39349
2012-13 – 41695
2014-15 – 36729
2015-16 – 40300
2016-17 – 43115
अब विलायती नहीं खजूर
बाड़मेर के लिए खजूर अब विदेशी फल नहीं रहा। यहां के किसानों ने नवाचार के तौर पर 112 हैक्टयर में खजूर के पौधे लगाए हैं। इनसे प्रतिवर्ष करीब 700 मीट्रिक टन खजूर का उत्पादन हो रहा है। जिले में तीन प्रकार- ब्राही, मेडिसिनल और खुनेजी किस्म खजूर के पौधे लगे हैं। इनमें से मेडिसिनल खजूर सबसे ज्यादा 400 से 500 रुपए किलो की दर से बाजार में बिकते हैं।
2010 में अनार की दस्तक
2010 से पहले सिवाना व समदड़ी क्षेत्र में ही सिंचित खेती हो रही थी। इसके बाद बाड़मेर तथा आस-पास के क्षेत्र में ट्यूबवैल व नर्मदा नहर की वजह से लोगों को सिंचाई के साधन उपलब्ध हुए तो नकदी फसलों की बुवाई होने लगी। साथ ही कृषि विज्ञान की तरक्की से खेती के क्षेत्र में भी प्रयोग हुए। वर्ष 2011 में सबसे पहले यहां प्रयोगिकतौर पर अनार के पौधे लगाए गए। इसके सफल रहने पर अब करीब 5 हजार हैक्टेयर में अनार का उत्पादन हो रहा है। इससे किसानों को हर वर्ष करीब 100 करोड़ की आमदनी हो रही है।
औषधीय पौधे भी लगे
इसके अलावा कई औषधीय पौधे लगाए जा रहे हैं। हाल ही में सिवाना व चौहटन क्षेत्र के किसानों ने अंजीर की खेती शुरू की है। इसके अलावा शंखपुष्पी, एलोवेरा, सतावरी, अरनिया, तुम्बा का भी उत्पादन हो रहा है।
उर्वरकों का नकारात्मक परिणाम
1966-67 में जरूरत के अनुसार संकर बीज तैयार होने के बाद रासायनिक खाद बाजार में आई। इसने पैदावार को कई गुणा बढ़ा दिया। किसानों ने अधिक से अधिक रासायनिक खाद व कीटनाशक का उपयोग किया तो इसके नकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। देश में इससे कैंसर के रोगियों की तादाद बढऩे लगी। पंजाब में देश का 20 प्रतिशत रासायनिक खाद का उपयोग हो रहा है। ऐसे में यहां उत्पादित अनाज बाजार में बिकना भी मुश्किल हो गया है।
अब जैविक खेती की ओर
रासायनिक उर्वरकों के गंभीर परिणाम को देख केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में जैविक खेती पर बल देना शुरू किया। इसके लिए किसानों को कृषि विभाग की ओर से प्रमाण पत्र जारी किया जाता है। जैविक उत्पादों की बाजार में करीब 8 से 10 गुणा तक दाम मिल रहा है। जिले में वर्तमान में करीब एक हजार हैक्टेयर में जैविक खेती की जा रही है।
किसानों के लिए चल रही योजनाएं
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना – इस योजना में किसानों की खरीफ फसल के लिए 2 प्रतिशत तथा रबी के लिए 1.5 प्रतिशत प्रीमियम पर बीमा किया जाता है। इसका बकाया प्रीमियम राज्य व कें्रद सरकार आधा-आधा वहन करती है।
कृषि सिंचाई योजना – इसमें जलहोज व खेत तलाई बनाने के लिए किसान को अनुदान दिया जाता है। इसमें जलहोज के लिए 90 हजार तथा खेत तलाई के लिए 5250 रुपए का अनुदान मिलता है।
आत्मा योजना – इसमें कृषक भ्रमण, प्रशिक्षण व फसल प्रदर्शन किया जाता है।
रष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन – इसमें किसान को बाजारा, मूंग, मोठ व गेहूं की उन्नत किस्म का बीज दिलाया जाता है।
नमूप – तारबंदी, तिलहन फसलों का प्रदर्शन, कृषि यंत्रों पर अनुदान व कृषि यंत्र किराये पर दिया जाता है।
राष्ट्रीय कृषि विकास योजना – पाइप लाइनों पर अनुदान।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना – इसमें ड्रीप, फव्वारा, मिनी फव्वारा में अनुदान दिया जाता है।
इतिहास का आइना : स्वाभिमान के लिए भूखा रहा था देश…
देश में 1964 में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। उस समय देश में अनाज का भयंकर संकट उत्पन्न हो गया। इस पर अमरीका ने सुअरों को खिलाने वाला गेहूं भारत को देने की पेशकश की तो प्रधानमंत्री ने इससे मना कर दिया था। साथ ही देशवासियों से सप्ताह में एक दिन भूखा रहने का आह्वान किया। इसे पूरे देश ने स्वाभिमान के लिए सहर्ष स्वीकार कर लिया। इससे अगली फसल आने तक अनाज की पूर्ति हो पाई।
डॉ. स्वामीनाथन ने बदला युग
वर्ष 1966 में डॉ. एसएस स्वामीनाथन ने मैक्सिको के गेहूं व चावल के बीजों का पंजाब की घरेलू किस्म के साथ मिश्रण कर नई किस्म तैयार की। इससे उत्पादन कई गुणा बढ़ गया। वहीं पौधा बौना होने के कारण हवा में ज्यादा खराबा भी नहीं हुआ। इस फसल के आते ही देश में अनाज का संकट दूर हो गया।
याद कर रूह कांप जाती है
विक्रम संवत 1956 व 1996 में प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा। इससे यहां लोगों के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं बचा। आवागमन के साधन नहीं थे। इस पर लोगों ने थोड़े से आटे में खेजड़ी की छाल तथा घास मिला कर भूख मिटाई। इन वर्षों में पशुधन करीब खत्म हो गया। उस समय को याद कर कई बुजुर्गों की रुह कांप जाती है।
-गेस्ट राइट
प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 12 प्रतिशत भू-भाग बाड़मेर जिले में है। यहां की आजीविका का मुख्य स्त्रोत पशुपालन आधारित कृषि है। इसमें सिंचाई के साधन उपलब्ध होने से आय की विपुल सम्भावनाएं है
यहां राजस्थान के कुल उत्पादन में बाड़मेर का जीरे में 39.17 प्रतिशत, ईसबगोल में 30.42 प्रतिशत, अरण्डी में 13.32 प्रतिशत, ग्वार 12.62 प्रतिशत, बाजरा में 8.46 प्रतिशत, मोठ 27.47 प्रतिशत, मूंग 6.73 प्रतिशत व अनार का 35 प्रतिशत योगदान है। अधिकांश फसलों में जिले की उत्पादकता प्रदेश की उत्पादकता से काफी कम है इन्हें बढ़ाकर प्रति हैक्टेयर उत्पादन के साथ किसानों की आय बढ़ाने की जरूरत है।
वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या प्रतिवर्ष उत्पादन लागत बढऩा, अधिक जोखिम तथा तकनीकि ज्ञान नहीं होना है। कृषि में लगने वाले मुख्य आदान- बीज, पौध पोषण के लिए उर्वरक, पौध संरक्षण, रसायन व सिंचाई आदि का सही प्रबंधन कर कृषि लागत में कमी लाई जा सकती है। इसके साथ ही कुछ पहलू हैं जिनकी पालना आवश्यक है।
कृषि विकास की बुनियाद उपजाऊ मिट्टी व जल की उपलब्धता पर टीकी है। वहीं लगातार बढ़ रहे सिंचित क्षेत्र व विकास के दौर भूमि का उपजाऊपन कम हुआ है। अच्छी खेती के लिए मित्र कीट-पतंगे व पक्षियों से होने वाला परागीकरण व प्रकृति का संतुलन जरूरी है। वर्तमान में इसका धीरे-धीरे ह्रास हो रहा है। अच्छी खेती के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर उपयोग आवश्यक है। बारिश के जल का ज्यादा से ज्यादा संरक्षण करते हुए बंूद-बूंद सिंचाई काम में लेकर कम पानी में अधिक उत्पादन ले सकते हैं।
वहीं असंतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक के उपयोग से उत्पादन व वातावरण प्रभावित हो रहा है। इसके लिए सही मात्रा, समय व अनुसंशित दर से प्रयोग करने से फसल की गुणवत्ता, जमीन का उपजाऊपन बना रहेगा तथा लागत भी कम हागी। जैविक कृषि का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग से उत्पादन में स्थिरता के साथ गुणवत्ता व पोषण बना रहे। नवीन तकनीकों से उत्पादन बढ़ सकता है।
वर्तमान में मशीनों से कार्य बहुत कम किया जा रहा है। ऐसे में फार्म मशीनीकरण का ज्यादा से ज्यादा से उपयोग कर लागत में कमी लाई जा कसती है। वर्तमान में अधिक उत्पादन लेने के लिए किसान एक ही फसल या दो फसल का प्रयोग कर रहा है। वातावरण को देखते हुए पशुपालन आधारित समन्वित कृषि प्रणाली की आवश्यकत है। इससे एक क्षेत्र में असफल होने पर दूसरे से भरपाई की जा सके।
पारंपरिक (केर, कुमट व सांगरी) सहित विभिन्न फसलों (जीरा, अनार, बाजरा आदि) का मूल्य संवद्र्धन करने की नितांत आवश्यकता है। इससे उपज का सही मूल्य मिल सके। वर्तमान में फसल का उचित भण्डारण नहीं होने के कारण उसका काफी हिस्सा खराब हो जाता है। ऐसे में सुदृढ़ भंडारण से नुकसान से बचा जा सकता है।
फार्म उत्पादक संगठन के अन्तर्गत किसान ही किसान से फसल की खरीद कर विपणन करता है, जो भी लाभांश किसान कंपनी को मिलता है। वह समान रूप से सभी हितकारकों में बंटता है। एफपीओ को बढ़ावा देने का उद्देश्य किसान के लाभ को बढ़ाना व बिचैलियों को समाप्त करना है। सूचना तकनीक का ज्यादा से ज्यादा खेती में उपयोग लाना फायदेमंद होगा।
– प्रदीप पगारिया, कृषि विज्ञान केंद्र प्रभारी, गुड़ामालानी
Source: Barmer News