Posted on

– पेयजल के लिए अग्नि परीक्षा कब तक?
रतन दवे
टिप्पणी
सीमांत मठाराणी गांव में पानी को लेकर प्यासों का तीन किलोमीटर तक रेत में रास्ता बनाकर टैंकर पार करवाना सरकार और प्रशासन के इंतजाम की कलई खोल गया। भरी दुपहरी में ग्रामीणों ने इतना पसीना बहाया जितना उन्हें पानी नसीब नहीं हुआ। प्यासों ने मेहनत नहीं की होती तो शायद यह टैंकर यहीं से लौट जाता और सरकारी कारिंदे यह कहकर पल्ला झाड़ देते कि रास्ता हीं नहीं है क्या करें? सीमांत क्षेत्र में रहने वालों को गाहे-ब-गाहे कई अवसरों पर देश के रक्षक और सैनिक कहने वाली सरकारों ने आजादी के बाद भी इनके लिए पनी तक का प्रबंध नहीं किया है।
पेयजल योजनाओं के नाम हर चुनावों में गिनाए जाते है और फिर रेत पर लिखे अक्षर की तरह ये वादे चुनावी आंधी बाद उड़ जाते है। जनप्रतिनिधि इधर का रुख नहीं करते, प्रशासनिक अधिकारी इतनी दूर आने से कतराते है और ग्रामीणों की पीड़ा सुनने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है।
मठाराणी में ग्रामीणों ने तीन किलोमीटर तक का धोरों पर रास्ता खुद बनाया। कल्पना कीजिए कि भरी दुपहरी में एक घड़े पानी के लिए इन लोगों ने कितनी मेहनत की होगी? अब प्रश्न उठता है कि सरकारी जेसीबी 18 किमी पर थक क्यों गई? क्या धोरों पर ग्रामीण रास्ता बना रहे थे तो आगे सरकारी मशीनरी काम नहीं कर पाई? आंधियों के बाद सीमांत क्षेत्र के कच्चे-पक्के मार्ग रेत से अटे प ड़े है। इन मार्गों की तुरंत सफाई का कार्य कब किया जाएगा?
गर्मियों के इस दौर में जब पानी की सर्वाधिक जरूरत है और प्रशासन कागजों में दर्शा रहा है कि पानी प्यासों तक पहुंच रहा है तो बीच में अटकने वाले टैंकरों से जलापूर्ति का पानी कहां ज रहा है? प्रशासनिक अमला केवल टैंकर भेजकर इतिश्री नहीं करें बल्कि यह भी पता करे कि संबंधित गांव में पानी पहुंच भी रहा है या नहीं? बिजली, पानी और चिकित्सा की बैठक प्रतिमाह जिला कलक्टर खुद ले रहे है तो उनको इन हालातों से अगवत करवाने के बाद में क्या इंतजाम किए गए। बारिश के बाद इन लोगों की पीड़ा राम हर लेंगे लेकिन राज का काज अभी तक जिम्मेदारीपूर्वक नहीं कहा जा सकता है।
जरूरी है कि सीमांत गांवों को लेकर विशेष टीम का गठन किया जाए जो मॉनीटरिंग करे कि इन गांवों तक पानी पहुंच रहा है या नहीं? यह टीम ही तय करे कि कहीं पर रेत और अन्य व्यवधान से टैंकर रुक रहे तो समाधान क्या होगा? कब तक ग्रामीण खुद रास्ते बनाकर पीने के पानी के लिए पसीना बहाते रहेंगे? यह जिम्मेदारी प्रशासन की बनती है। सवाल जनप्रतिनिधियों से भी है कि आजादी के 74 साल बाद तक भी हालात ऐसे है तो सरकार को वे पीड़ा सुना नहीं रहे या सरकार सुन नहीं रही? सरपंच से लेकर सांसद तक के वोट में हर बार इन लोगों से एकमात्र पीने का पानी पहुंचाने का वादा किया जा रहा है और वो भी पूरा नहीं हुआ तो फिर इन लोगों के साथ अब तक छलावा ही हुआ है। जनप्रतिनिधि भी अपनी जवाबदेही तय कर प्यासों की पीड़ा का समाधान करवाएं।

Source: Barmer News

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *