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जोधपुर. पारिवारिक कारणों और प्रताडऩाओं से परेशान होकर पूरे परिवार के साथ मौत को गले लगाने वाली विस्थापित लक्ष्मी भील यहां आने से पहले पाकिस्तान के सिंध प्रांत की सक्रिय एक्टिविस्ट रही थी। उसने वहां हिन्दू अल्पसंख्यकों पर अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठानी चाही, मगर भाग कर भारत आना पड़ा और यहां भी सुकून नहीं मिला।

पाकिस्तान के सिंध प्रांत से बुधाराम भील का परिवार साल २०१५ में विस्थापित होकर भारत आया था। बुद्धाराम की शिक्षित बेटी लक्ष्मी पोलियो अभियान में हेल्थ वर्कर के रूप में कार्यरत थी। इसी दौरान वह और नर्सिंग का कोर्स करने वाली उसकी बहन प्रिया भी जुल्मों का शिकार होने लगी। लक्ष्मी पाकिस्तान के प्रमुख राजनैतिक दल पाकिस्तान अवामी तहरीक से सक्रिय रूप से जुड़ी और आंदोलनों में बढ़चढ़ कर भाग लेने लगी। लक्ष्मी की सरकारी नौकरी छूटने के साथ ही उनकी आजादी का आंदोलन भी अधूरा रह गया। कट्टरवादी ताकतें ऐसी पीछे पड़ी कि भागने के अलावा परिवार के पास कोई रास्ता नहीं बचा। यहां भी एंजेंटों व प्रताडऩाओं ने जीना दूभर कर दिया। अंतत: पूरे परिवार ने गत ८ अगस्त की रात न्याय की उम्मीद अधूरी छोड़ मौत को गले लगा लिया।

अड़चनें बन जाती हैं बाधक
धार्मिक उत्पीडऩ की वजह से पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों के लिए जो नीति बनी, उसमें कमियां हैं। जमीनी स्तर पर अड़चनों की वजह से नीति लागू नहीं हो पा रही है। ऐसे में विस्थापित भारत आने के बाद भी लम्बी यातनाओं का शिकार होते हैं। आर्थिक, सामाजिक, यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। एक ऐसे गिरोह का शिकार होना पड़ता है, जिसमेंं सरकारी तंत्र में बैठे कुछ लोग भी शामिल हैं। एेसे में विस्थापित परिवार वापस जाने को मजबूर होते हैं या फिर देचू जैसे कांड के रूप में पीड़ा की परिणिती सामने आती है।
– हिंदू सिंह सोढ़ा, अध्यक्ष, सीमांत लोक संगठन।

Source: Jodhpur

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