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बिलाड़ा (जोधपुर) . जैन संत कांति मुनि का मानना है कि आत्मा स्वभाव से परम शुद्ध ,परम पवित्र तथा आनंदमय है। किंतु कर्मों के बंधन या आवरण आत्मा को मलिन कर देते हैं और वह पतन की ओर जाने लगती है। अपनी आत्मा को पतन के मार्ग से बचाकर उत्थान की ओर ले जाने एवं उसके शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए धर्म ही एकमात्र सहारा है। धर्म की आराधना करके हम अपनी आत्मा से जकड़े कर्म बंधनों को काट कर फेंक सकते हैं।

उन्होंने कहा कि आज के युग में मानव समाज में भौतिकवाद में अपनी जड़ें बहुत गहरी जमा ली है। यह एक अशुभ लक्षण है। यदि मानव इसी प्रकार भौतिक पदार्थों के मुंह में जकड़ता चला गया तो वह अपनी आत्मा की ओर से मुंह फेर लेगा और उसका अकल्याण ही होगा।

मुनि ने कहा जिस प्रकार अमरबेल किसी वृक्ष पर अधिकार कर लेती है और उस वृक्ष के सारे रस को स्वयं सोख कर एक दिन उसे मात्र मृत एवं शुष्क ठूंट बना कर रख देती है। उसी प्रकार भौतिकता की कामना रूपी अमरबेल हमारे जीवन में से धर्म के रस को समाप्त करके हमारे जीवन रूपी वृक्ष को नष्ट कर देती है।

मुनि के अनुसार भौतिक इस संसार के नाशवान पदार्थों की चकाचौंध से जो भ्रमित हो गए हैं। ऐसे व्यक्ति यह पूछ सकते हैं कि आखिर धर्म की आवश्यकता ही क्या है। क्या धर्म कोई खाने पीने की वस्तु है या ओढऩे-बिछाने के काम में धर्म आता है। ऐसे प्रश्न कर्ताओं के लिए सीधा सा उत्तर यही है कि जिस प्रकार शरीर आहार के बिना नहीं चल सकता, उसी प्रकार धर्म के अभाव में आत्मा की निर्मलता सुरक्षित नहीं रह सकती।

Source: Jodhpur

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